एस सी-एस टी अत्याचार निवारण अधिनियम १९८९ के नए रूप के विरोध में 6 सितम्बर को आंदोलन हुआ और भारत बंध हुआ | २ अप्रेल को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ काफी हिंसक आन्दोलन हुआ. कौन सा आन्दोलन कितना सफल रहा इस पर तो हमेशा अलग अलग नजरिये होते हैं लेकिन कानून के विद्यार्थियों का चिंतन माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की तरफ रहा.
माननीय न्यायालय का निर्णय यह था कि १९८९ में बने इस अधिनियम के खिलाफ दुरुपयोग की शिकायतें हैं और दूसरे पक्ष को सुने बिना और प्राथमिक जांच के बिना तो दुरूपयोग की संभावनाएं बहुत ज्यादा हो सकती हैं अतः प्राथमिक जांच अथवा उच्च अधिकारियों की इजाजत के बिना आरोपी की गिरफ्तारी ना हो. बहुत से मामलों में कोई मारपीट नहीं होती और केवल जाति सूचक शब्दों के आधार पर मुकदमा बनाया जाता है —- ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष सावधानी की बात कही है क्योंकि ऐसे आरोप बिना आधार भी बनाए जा सकते हैं. मारपीट में तो मेडिकल रिपोर्ट आ जाती है लेकिन महज गाली गलोच का सबूत देखने के लिए प्राथमिक जांच की जरूरत है. दुरुपयोग की शिकायतें तो करीब हर अधिनियम के खिलाफ संभावित होती हैं — किसी में कम और किसी में ज्यादा लेकिन विचारणीय बिंदु यह है कि क्या ऐसी खामियां अधिनियम में हैं जिनके कारण न्याय के सिद्धांतों और ख़ास कर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की अवहेलना होती है और क्या इसमें पुलिस के पास न्याय करने की प्रक्रिया अपनाने की गुन्जाईस है या नहीं. यदि कार्यवाही करने वाले अधिकारी के पास न्याय हेतु अपना उचित विवेक अपनाने की गुन्जाईस नहीं हो तो ऐसा अधिनियम न्याय के सिद्धांतों की कसोटी पर खरा नहीं उतरता.प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत वो कसोटी हैं जिनपर रख कर हर अधिनियम को परखा जाता है. प्राकृतिक न्याय के तीन सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण हैं. पहला यह है कि कोई आदमी खुद के मामले में खुद जज नहीं हो सकता. दूसरा यह है कि किसी भी व्यक्ति का पक्ष सुने बिना उसे दण्डित नहीं किया जा सकता और तीसरा सिद्धांत यह है कि जो भी निर्णय लिया जाए वह औचित्यपूर्ण और तर्कपूर्ण हो.प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत और SC/ST Act
सवाल उठता है कि मुकदमा दर्ज होते ही आरोप लगाने वाले की मर्जी से कार्यवाही होगी तो साफ़ है कि अपरोक्ष रूप से आरोप लगाने वाले को ही दूसरे पक्ष को दण्डित करने का अधिकार मिल गया और पुलिस अधिकारी को औचित्यपूर्ण कार्यवाही करने का विवेक इस्तेमाल करने का मौका नहीं मिला. इतिहास गवाह है कि अन्यायपूर्ण कार्यवाही से कभी किसी का भला नहीं हुआ . प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में दूसरा जरुरी सिद्धांत है कि जिसके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही की जा रही हो उसका पक्ष सुना जाय. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को सुनिश्चित करने के लिये दिशा निर्देश दिए के प्राथमिक जांच हो और प्राथमिक जांच के बाद गिरफ़्तारी होने से आरोपी को झूठे मुकदमे में जेल जाने से मुक्ति मिल सकती है. तीसरा प्राकृतिक सिद्धांत है कि जो निर्णय लिया जाय उसमें उचित और तर्कपूर्ण कारण लिखे जाएँ. जाहिर है कि सभी सम्बंधित पक्षों को सुने बिना किसी को जेल भेजा जाएगा तो उसके साथ न्याय नहीं होगा. बिना सुनवाई के किसी उचित नतीजे पर कोई नहीं पहुँच सकता.अत्याचार बंद हों पर दूसरे पक्ष पर अत्याचार ना हो
यह सही है कि दलित समाज के साथ ज्यादती की शिकायतें कई बार आती हैं और उनको रोकना भी बहुत जरूरी है लेकिन जोर इस बात पर होना चाहिए कि अत्याचार बंद हों और जल्दबाजी में अत्याचार रोकने के बजाय दूसरे पक्ष पर अत्याचार ना हो जाए और न्याय करने के प्रयास में अन्याय ना हो जाए. ऐसी कार्यवाही से अत्याचार करने वाले बचते रहेंगे और निर्दोष जेल जाते रहेंगे. नतीजा यह होगा की अत्याचार से पीड़ित वास्तविक मामले भी गलत मामलों के बोझ के नीचे दब जायेंगे. दलितों को अत्याचार से बचाने के लिए जरूरी है के न्याय में बिना कारण विलम्ब ना हो तथा जहां देख कर कदम रखना हो वहाँ देख कर सावधानी से चला जाए. बिना उचित कारण के किसी को जेल भेजने से लोगों में आपस में दुश्मनी बढ़ेगी और दलित कल्याण में तो बाधा पड़ेगी ही साथ ही आपस का भाईचारा ख़त्म होने से कोई पक्ष भी शांति से नहीं बस पायेगा. शान्ति और प्रगति दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा.बदनीयत से किये गए झूठे मुकदमों के बाबत भी हर्जाने के प्रावधान
अब दलित अत्याचार का व्यावहारिक पक्ष देखें तो एक पक्ष यह भी है कि कई बार कुछ प्रभावशाली लोग दलितों पर नाजायज दबाब बना कर उनसे झूठी रिपोर्ट करवा देते हैं. ऐसे मामलो में दलित भी पीड़ित माने जाने चाहियें और नाजायज दबाब देने वालों पर भी दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए और बदनीयत से किये गए झूठे मुकदमों के बाबत भी हर्जाने के प्रावधान उचित होने चाहियें.असावधानी में कहीं आपसी भाईचारे को नुकसान ना पहुंचा दें
राजस्थान के कुछ गिने चुने क्षेत्र अलग कर दिए जाएँ तो अब ज़माना आपसी सोहार्द्र और भाईचारे का बन गया है. लोग साथ मिलकर काम करते हैं और साथ खाते पीते —- उठते बैठते हैं. जरूरत इस बात की है के हम असावधानी में कहीं आपसी भाईचारे को नुकसान ना पहुंचा दें.जिम्मेवारी हर जिम्मेवार नागरिक की है
आपसी भाईचारा बनाए रखने की ज्यादा जिम्मेवारी हर जिम्मेवार नागरिक की है. नेताओं और अधिकारियों की जिम्मेवारी है कि वे ज्यादती रोकने और भाईचारा बनाने में अपनी जागरूक भूमिका निभाएं. इन दिनों जो वातावरण बन रहा है वो किसी पक्ष के लिए भी हितकर नहीं है. बहुत लोग अपने नाजायज हित साधने के लिए आपसी फूट डाल रहे हैं. अपवाद छोड़ कर — वोट बैंक के सौदागर तो बिलकुल ही गैर जिम्मेवार हो गए हैं. जरूरत है कि ज्यादती के मामलों को कठोरता से रोका जाए और निर्दोष लोगों को पीड़ित होने से बचाया जाए.जातिवाद के जंजाल से बाहर निकलें
कबीर से लेकर दिनकर तक भरपूर प्रयास करते रहे कि हम जातिवाद के जंजाल से बाहर निकलें लेकिन हम कभी समझते हैं और कभी भटक जाते हैं. जाती क्या है. जाती भगवान की बनाई हुई नहीं है और विभिन्न व्यवसायों को लेकर बने वर्णों ने विभाजित हो कर छोटी जातियों का विकृत रूप ले लिया. गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान कृष्ण ने सभी वर्णों में अपना अंश बराबर बताया है —–“चतुर्वर्न्यम मया कृत्वा — गुण कर्म विभागशः”कोई भी समझदार आदमी जातिवाद में कोई सार्थकता नहीं देख सकता. जरूरत है सभी हिन्दू भाई आपस में भाईचारा रखें और जातिवाद के कोढ़ के रोग से छुटकारा पावें. हम अपना सबका विनाश करने से खुद को बचावें.
महान कवि दिनकर जी ने साठ के दशक में ही दे दी थी चेतावनी
हम जो बिना बात आपस में लड़ जाते हैं उनके लिए महान कवि दिनकर जी की साठ के दशक की चेतावनी फिर याद दिलाता हूँ —–“मुल्क तेरी बर्बादी के आसार नजर आते हैं चोरों के संग संग पहरेदार नजर आते हैं . खंड खंड में खंडित भारत रो रहा है जोरों से हर जाती हर धर्म के ठेकेदार नजर आते हैं.” महान कवि दिनकर जी© आर एन अरविन्द आई ए एस सेवानिवृत दिनांक 8—9—2018